भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथ यात्रा। Bhagavan Shri Jagnnath Ji Ki Rath Yatra

वेदास!
20 Jul 2021
भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथ यात्रा:
नीलाचलनिवासाय नित्याय परमात्मने ।
बलभद्रसुभद्राभ्यां जगन्नाथाय ते नमः ॥
जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भावुत में।।
पूर्व भारतीय उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से सम्पूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है।
पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है।
महाप्रसाद का गौरव:
रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अन्त में गरुण ध्वज पर या नन्दीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ ६५ फीट लंबा, ६५ फीट चौड़ा और ४५ फीट ऊँचा है। इसमें ७ फीट व्यास के १७ पहिये लगे हैं। बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं। सन्ध्या तक ये तीनों ही रथ मन्दिर में जा पहुँचते हैं। अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मन्दिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं। गुंडीचा मन्दिर में इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। कहते हैं कि महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मन्दिर में ही किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से इस दिन मिलता है।
जनकपुर मौसी का घर:
जनकपुर में भगवान जगन्नाथ दसों अवतार का रूप धारण करते हैं। विभिन्न धर्मो और मतों के भक्तों को समान रूप से दर्शन देकर तृप्त करते हैं। इस समय उनका व्यवहार सामान्य मनुष्यों जैसा होता है। यह स्थान जगन्नाथ जी की मौसी का है। मौसी के घर अच्छे-अच्छे पकवान खाकर भगवान जगन्नाथ बीमार हो जाते हैं। तब यहाँ पथ्य का भोग लगाया जाता है जिससे भगवान शीघ्र ठीक हो जाते हैं। रथयात्रा के तीसरे दिन पंचमी को लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ को ढूँढ़ते यहाँ आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं जिससे लक्ष्मी जी नाराज़ होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और हेरा गोहिरी साही पुरी का एक मुहल्ला जहाँ लक्ष्मी जी का मन्दिर है, वहाँ लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ लक्ष्मी जी को मनाने जाते हैं। उनसे क्षमा माँगकर और अनेक प्रकार के उपहार देकर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। इस आयोजन में एक ओर द्वैताधिपति भगवान जगन्नाथ की भूमिका में संवाद बोलते हैं तो दूसरी ओर देवदासी लक्ष्मी जी की भूमिका में संवाद करती है। लोगों की अपार भीड़ इस मान-मनौव्वल के संवाद को सुनकर खुशी से झूम उठती हैं। सारा आकाश जै श्री जगन्नाथ के नारों से गूँज उठता है। लक्ष्मी जी को भगवान जगन्नाथ के द्वारा मना लिए जाने को विजय का प्रतीक मानकर इस दिन को विजयादशमी और वापसी को बोहतड़ी गोंचा कहा जाता है। रथयात्रा में पारम्परिक सद्भाव, सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
{ और पढ़े : भगवान जगन्नाथ जी अपने भक्त के लिए स्वयं गए युद्ध लड़े। }
देवर्षि नारद को वरदान:
श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्री कृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं बल्कि बलराम और सुभद्रा होते हैं। उसकी कथा कुछ इस प्रकार प्रचलित है - द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृन्दावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की। पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।
माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलरम अचानक अन्त:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया। अन्त:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग-अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। सुदर्शन चक्र विगलित हो गया। उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया। यह माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था।
अचानक नारद मुनि के आगमन से वे तीनों पूर्व वत हो गए। नारद मुनि ने ही श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया।
भगवान जगन्नाथ रथयात्रा पर विशेष: जगन्नाथ पुरी, उड़ीसा: रथयात्रा ~ 12 जुलाई 2021:
उड़ीसा (अब ओडिशा) की धार्मिक नगरी पुरी में भगवान जगन्नाथ, भगवान बलराम और देवी सुभद्रा का विश्व प्रसिद्ध मंदिर है। हिन्दू पंचांग के अनुसार यहां हर आषाढ़ महीने (जून-जुलाई) में विशाल रथयात्रा का भव्य आयोजन होता है।
देवताओं का स्नान समारोह व रथयात्रा:
जेठ महीने की पूर्णिमा तिथि को देवस्नान पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है, इस पर्व से ठीक 16 दिन बाद, आषाढ शुक्ल द्वितीया 12 जुलाई 2021 को विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा पर्व मनाया जायेगा।
इस रथ की रस्सियों को खींचने और छूने मात्र के लिए पूरी दुनिया से श्रद्धालु यहां आते हैं, क्योंकि भगवान जगन्नाथ के भक्तों की मान्यता है कि इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। जगन्नाथपुरी में भोजन करते हैं। और दक्षिण में रामेश्वरम में विश्राम करते हैं।
द्वापर के बाद भगवान श्री कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और बन गए जग के नाथ अर्थात जगन्नाथ।
पुरी का जगन्नाथ धाम चार धामों में से एक है। यहां भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं।
हिन्दुओं की प्राचीन और पवित्र 7 नगरियों में पुरी उड़ीसा राज्य के समुद्री तट पर बसा है।
भारत के पूर्व में बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर बसी पवित्र नगरी पुरी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से थोड़ी दूरी पर है। आज का उड़ीसा प्राचीन काल में उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था।
पुराणों में इसे धरती का वैकुंठ कहा गया है। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है।
जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियां करते हैं।
महाभारत के वनपर्व के अनुसार सबसे पहले सबर जाति विश्ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। इसलिय आज भी पुरी के मंदिर में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है।
क्या आप जानते है पूरी जी मे भगवान कृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं बल्कि बलराम जी और सुभद्रा जी क्यों है?
द्वारिका में भगवान श्री कृष्ण जी शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े। रुक्मिणी जी ने यह बात अन्य महारानियों को बतायी, महारानियों को आश्चर्य हुआ।
रुक्मिणी जी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृन्दावन में राधा नाम की गोपकुमारी है हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी प्रभु ने उनको नहीं भुलाया है।
राधा जी की, भगवान श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनके पास जाकर सभी महारानियों ने अनुनय-विनय किया कि हमे भगवान की बाल लीला के बारे में बताये ।
पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, पहले सुभद्रा को पहरे पर दरवाजे में बिठा दो, ताकि कोई अंदर न आने पाए, माता जी के कहने पर सुभद्रा दरवाजे पर बाहर बैठ गयी। अंदर माता रोहिणी जी सभी महारानियों को भगवान की बाल लीला सुनाने लगी।
कुछ समय बाद श्री कृष्ण जी अन्त:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया।
थोडी ही देर हुआ था बलराम जी भी आ गये, और अंदर जाने लगे, लेकिन सुभद्रा जी ने उन दोनों को अंदर जाने से रोकने के लिय बीच में खडे होकर एक हाथ से कृष्ण जी और दुसरे हाथ से बलदाऊ जी के हाथ को पकड कर बाहर में ही रोकने की कोशिश करने लगी।
बहन के द्वारा पकडे जाने से दोनों भाई सुभद्रा जी को आंखे तरेर कर हाथ छोडने के लिय कहने लगे। भाव विभोर कर देने वाला भाई बहन के इस प्रेमभाव वाले वातावरण युक्त दुर्लभ दृश्य में अचानक नारद जी का आगमन हो गया , दोनों भाई के बीच में बहन सुभद्रा की इस दुर्लभ झांकी के दर्शन से गदगद हो गये । और अनायास ही नारद जी के मुखार बिंद से निकल पडा - 'वाह प्रभु वाह!'
'भले बिराजो नाथ,' तब से यह भजन उडीसा क्षेत्र में गाया जाता है। नारद जी ने भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप तीनों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया। तब से भगवान उसी स्वरूप में जगन्नाथ पुरी में विराजमान हो गये।
हर 12 वर्ष के अंतराल में जिस समय 2 आषाढ मास होता है तब भगवान जगन्नाथ जी के श्री विग्रहो को बदला जाता है।महानीम नाम का एक पवित्र पेड जिसमें शँख, चक्र, गदा, पदम का निशान हो, जिसके नीचे सर्पो का तथा उपर चिडियाओं का वास न हो। ऐसे पवित्र पेड से नया विग्रह मन्दिर परिसर स्थित मूर्ति निर्माण शाला में बनाया जाता है। पुराने श्री विग्रह को मन्दिर परिसर में ही कैवल्य वैकुंठ ( कोइली वैकुंठ )में विश्राम दे दिया जाता है।
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दुनिया की सबसे बडी रसोई:
जगन्नाथ मंदिर की रसोई दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद तैयार करने के लिए लगभग 500 रसोइए तथा उनके 300 सहयोगी काम करते हैं।
माना जाता है कि इस रसोई में जो भी भोग बनाया जाता है, उसका निर्माण माता लक्ष्मी की देखरेख में ही होता है। यह रसोई विश्व की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है। यह मंदिर के दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थित है।
यहां बनाया जाने वाला हर पकवान शास्त्रों के दिशा-निर्देशों के अनुसार ही बनाया जाता है। भोग पूरी तरह शाकाहारी होता है। उसमें किसी भी रूप में प्याज व लहसुन का प्रयोग नहीं किया जाता। भोग मिट्टी के बर्तनों में तैयार किया जाता है। यहां रसोई के पास ही दो कुएं हैं जिन्हें गंगा व यमुना कहा जाता है। केवल इनसे निकले पानी से ही भोग का निर्माण किया जाता है। इस रसोई में 56 प्रकार के भोगों का निर्माण किया जाता है। रसोई में पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाएगी, चाहे कुछ हजार लोगों से 20 लाख लोगों को खिला सकते हैं। मंदिर में भोग पकाने के लिए 7 मिट्टी के बर्तन एक दूसरे पर रखे जाते हैं और लकड़ी पर पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में सबसे ऊपर रखे बर्तन की भोग सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद भोग तैयार होता जाता है। मंदिर की कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर आता है आनंद बाजार। यह वही जगह है जहां महाप्रसाद मिलता है। कहते हैं इस महाप्रसाद की देख-रेख स्वयं माता लक्ष्मी करती हैं।
मन्दिर की व्यापकता:
मन्दिर का क्षेत्रफल चार लाख वर्ग फीट में है। भूमि सतह से मन्दिर की उंचाई 214 फीट जिसके उपर 15 फीट की गोलाई का नीलचक्र जिसके उपर 18 फीट की लम्बे बांस पर महाध्वज फहराता है। प्रतिदिन शाम के समय एक सेवक अपने पीठ पर ध्वज पताका का बडा सा गठरी अपने पीठ पर बांधकर बंदर की भांति मन्दिर के उपर चढता है। भयानक समुद्री तेज हवा के प्रवाह के मध्य पीठ से गठरी निकाल कर नीलचक्र व बांस के पताका को बदलकर पुराना पताका फिर से पीठ में बांधकर नीचे आता है। प्रत्येक एकादशी को ध्वजारोहण के बाद नीलचक्र के उपर ही मन्दिर शीर्ष की आरती की जाती है।
(जब भी आप जगन्नाथ जी जाने की योजना बनाए तो एकादशी तिथि को ध्यान में रखे , जिस दिन मन्दिर शीर्ष की आरती होती है, अन्य दिन में केवल ध्वज पताका फहराया जाता है)।
रथ में यात्रा:
भगवान के रथ में यात्रा पर निकलने से सम्बंधित बहुत सी कथाये है । जिसके कारण इस महोत्सव का आयोजन होता है।
1. कुछ लोग कहते है कि सुभद्रा अपने मायके आती हैं, तो भाईयों से नगर भ्रमण की इक्छा वयक्त करती ह
हैं, तब दोनों भाई अपने बहन को लेकर रथ में घुमाने ले जाते है।
2. गुंडीचा मन्दिर में प्रतिष्ठित देवी इनकी मौसी लगती है, जो तीनो भाई बहनों को अपने घर आने का निमंत्रण देती है। तब दोनों भाई, बहन के साथ मौसी के घर 10 दिन के लिए रहने जाते है।
3. 15 दिन तक बीमार रहने के बाद स्वास्थ्य लाभ व आराम करने के लिय भगवान अपने भाई-बहन के साथ मौसी के घर जाते हैं।
गजा मुंग का प्रसाद:
पुरे साल भर भगवान जगन्नाथ जी को 56 भोग परिपूर्ण रूप से लगाया जाता है, उस भगवान को उनके सबसे बडे पर्व रथयात्रा के दिन भीगे हुए चना और मुंग का भोग क्यो लगाया जाता है ?
भगवान जगन्नाथ जी की पूजा दिनचर्या में बहुत कुछ बातें दुर्लभ हैं:
जैसे, प्रत्येक सोमवार को जनेऊ बदला जाता है, हर बुधवार को हजामत बनायी जाती है, वैशाख शुक्ल तीज से 21 दिन की चंदन यात्रा, ज्येष्ठ पूर्णिमा को 108 घडों के जल से स्नान कराया जाता है, जिससे भगवान का स्वास्थ्य खराब हो जाता है, तब से लेकर 15 दिन तक भगवान की सेवा उनके स्वास्थ्य लाभ के रूप में काढे का भोग लगाकर किया जाता है। इसी क्रम में अंकुरित चने व मुंग का भोग 16 वें दिन यात्रा के उत्सव पर्व पर किया जाता है। इस प्रसाद को गजामुंग के नाम से जाना जाता है। यह प्रसाद पूरे साल भर में एक ही दिन रथयात्रा के ही दिन प्राप्त किया जा सकता है।
बलभद्र जी के रथ का संक्षिप्त परिचय:
1. रथ का नाम -तालध्वज रथ
2. कुल काष्ठ खंडो की संख्या -763
3. कुल चक्के -14
4. रथ की ऊंचाई- 44 फीट
5. रथ की लंबाई चौड़ाई - 33 फ़ीट
6. रथ के सारथि का नाम - मातली
7. रथ के रक्षक का नाम-वासुदेव
8. रथ में लगे रस्से का नाम- वासुकि नाग
भगवान् जगन्नाथ जी के रथ का संक्षिप्त परिचय:
1. रथ का नाम - नंदीघोष रथ
2. कुल काष्ठ खंडो की संख्या - 832
3. कुल चक्के -16
4. रथ की ऊंचाई- 45 फीट
5. रथ की लंबाई चौड़ाई - 34 फ़ीट 6 इंच
6. रथ के सारथि का नाम - दारुक
7. रथ के रक्षक का नाम- गरुड़
8. रथ में लगे रस्से का नाम- शंखचूड़ नागुनी
सुभद्रा जी के रथ का संक्षिप्त परिचय:
1. रथ का नाम - देवदलन रथ
2. कुल काष्ठ खंडो की संख्या -593
3. कुल चक्के -12
4. रथ की ऊंचाई- 43 फीट
5. रथ की लंबाई चौड़ाई - 31 फ़ीट 6 इंच
6. रथ के सारथि का नाम - अर्जुन
7. रथ के रक्षक नाम-नाम- जयदुर्गा
8. रथ में लगे रस्से का नाम- स्वर्णचूड़ नागुनी
जय जगन्नाथ
{ और पढ़े : भगवान जगन्नाथ जी अपने भक्त के लिए स्वयं गए युद्ध लड़े। }
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