भौतिक प्रकृति की प्रकृति धार्मिक जीवन के बीच का सम्बंध

नेहा!
1 Sep 2018
कृष्ण कृपामूर्ति भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद 16 नवंबर 1971, दिल्ली में श्रीमद-भागवताम 4.14.14 के प्रवचन में कहा है कि: यह इस भौतिक संसार की प्रकृति है, कि सब कुछ नष्ट होता है। जो भी अच्छी चीज आप तैयार कर सकते हैं, समय के साथ, यह नष्ट हो जाएगी। यह भौतिक प्रकृति की प्रकृति है, कि जो कुछ शुरुआत में अच्छी तरह से पैदा होती है फिर धीरे-धीरे यह नष्ट हो जाती है। समय का प्रभाव, और फिर नष्ट हो जाती है। इसलिए धार्मिक आंदोलन में भी यदि भौतिकवादी मकसद है तो यह ख़त्म हो जाएगा। यह खड़ा नहीं होगा। इसलिए धार्मिक जीवन की शुरूआत बिना किसी भी भौतिक उद्देश्य के होनी चाहिए।
क्यूँ धार्मिक जीवन की शुरूआत बिना किसी भी भौतिक उद्देश्य के होनी चाहिए?
जैसा कि श्रील प्रभुपाद द्वारा बताया गया भौतिक उद्देश्य अस्थायी है जबकि आध्यात्मिक जीवन शाश्वत और साथ ही स्थायी भी है। जब हम भौतिक मकसद के साथ धार्मिक जीवन शुरू करेंगे तो हम उनके शर्तों के अनुसार सर्वोच्च भगवान से प्यार नहीं कर सकते। क्योंकि वहाँ पर हमेशा भौतिक लाभ का मकसद होगा। और यदि इस प्रक्रिया में भौतिक उद्देश्य शामिल है तो वह व्यक्ति भगवान के शुद्ध प्रेम के उच्चतम मंच तक नहीं पहुंच सकता है। यही कारण है कि प्रहलाद महाराज ने श्रीमद् भगवतम के स्कन्द सात में भगवान नरसिम्हादेव से भौतिक वरदान की मांग को ठुकरा दिया था। उन्होंने कहा कि यह भगवान के साथ एक व्यवसाय है और जीव की प्रकृति भगवान की इच्छा के अनुसार भगवान की सेवा करना है और बदले में कुछ भी नहीं माँगना है। एक पिता अच्छी तरह से जानता है कि उसके बच्चे के लिए सबसे अच्छा क्या होगा। वैसे ही भगवान हमारे सर्वोच्च पिता हैं और वह जानते है कि उनके भक्तों के लिए सबसे अच्छा क्या होगा और वह बिना किसी विफलता के उन्हें आपूर्ति करेंगे। हमें गुरु, साधु और शास्त्रों के मार्गदर्शन में अपने कर्तव्य को करने की जरूरत है।
ये शुद्ध भक्तो के लक्षण नहीं हैं, क्योंकि ये भक्ति के बदले कुछ महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहते हैं | श्रील रूप गोस्वामी के अनुसार शुद्ध भक्ति निष्काम होती है और उसमें किसी लाभ की आकांशा नहीं रहती | भक्तिरसामृत सिन्धु में (१.१.११) शुद्ध भक्ति की परिभाषा इस प्रकार की गई है:
अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् |
आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा || (चै च मध्यलीला१९.१६७)
“मनुष्य को चाहिए कि परमेश्र्वर कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति किसी सकामकर्म अथवा मनोधर्म द्वारा भौतिक लाभ की इच्छा से रहित होकर करे | यह शुद्धभक्ति कहलाती है।”
श्रीमद् भगवतम के छठें स्कंध में वृत्रासुर के उदाहरण से बताया गया कि भगवान की सेवा कैसे की जाए।भगवान के प्रति वृत्रासुर की भावना का वर्णन किया गया है। उनकी भाव एक सती पत्नी की तरह भगवान की सेवा करना था। एक सती स्त्री बिना किसी उद्देश्य के पूर्ण प्रेम और भक्ति के साथ वह अपने पति की सेवा करती है। सती स्त्री का कोई अन्य उद्देश्य नहीं होता है। उसका लक्ष्य केवल अपने पति को खुश करना ही होता है। भगवान को खुश करने के लिए हमारा भी वही उद्देश्य होना चाहिए तो हमारा जीवन सफल होगा। अगर हमारे अन्दर रंचमात्र भी भौतिक उद्देश्य है तो हम जन्म और मृत्यु के चक्रक्रम में फँस जाएंगे।
भगवान की सेवा कैसे करे?
हमें हमेशा ही भगवान विष्णु की महिमा का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
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