भगवान ने इस भौतिक जगत को क्यों बनाया है?

vedashindi
राजेश पाण्डेय, पीएच॰डी॰ !
29 Sep 2018

भगवान ने इस भौतिक जगत को क्यों बनाया है?

 

जब हम दुखी होते है या दुःखमयी परिस्थिति से गुज़र रहे होते हैं तो लोग यह कहते है की यह भौतिक जगत ऐसा ही है। लेकिन तब यहाँ पर बहुत ही आम सवाल उठते हैं की जब यह दुनिया दुःखों से भरी है तो भगवान ने इस भौतिक जगत को क्यों बनाया है? इस प्रश्न का उत्तर श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने जैव-धर्म के अध्याय 16 में दिया हैं। और वो बताते है कि सभी कर्मों अर्थात सांसारिक क्रियाकलापो की क्रियायें और उसकी प्रतिक्रियायें की जड़ कर्म करने की कामनायें है और इन इच्छायों का मूल कारण अविद्या अर्थात अज्ञानता है। अविद्या उस सत्य को भूलना है कि "मैं कृष्ण (ईश्वर या भगवान) का एक शाश्वत सेवक हूँ" और इसका मूल इस भौतिक समय में नहीं है। बल्कि, इसकी उत्पत्ति आध्यात्मिक और भौतिक संसारों के मध्य में तथस्थ संयोजन से होता है जोकि, भौतिक और आध्यात्मिक के बीच। चेतना की तथस्थ अवस्था है। यही कारण है कि कर्म का इस लौकिक समय में आदि नहीं है और इसलिए इसे आदिहीन कहा जाता है।

 

मायादेवी कृष्ण की बहिरंगा शक्ति है यनिकि भगवान की भौतिक शक्ति हैं। श्री कृष्ण ने उनके माध्यम से भौतिक ब्रह्मांड को बनाया है, और जो जीव अर्थात व्यक्तिगत आत्मा भगवान से दूर है उनको शुद्ध करने के लिए मायादेवी को प्रेरित किया है। माया के दो पहलू हैं: एक अविद्या और दूसरा प्रधान। अविद्या जीव से संबंधित है, जबकि प्रधान निष्क्रिय पदार्थ से संबंधित है। संपूर्ण निष्क्रिय, लौकिक दुनिया प्रधान से उत्पन्न हुई है, जबकि जीव की भौतिक क्रियाकलाप करने की इच्छा अविद्या में उत्पन्न होती है।

 

माया के दो अन्य विभाग भी हैं; अर्थात् विद्या (ज्ञान) और अविद्या (विस्मृति)और ये दोनों जीव से संबंधित हैं। अविद्या जीव को इस भौतिक जगत में बांधता है, जबकि विद्या उसे मुक्त करता है। अविद्या का संकाय तब तक काम करता रहता है जब तक बहिर्मुख-जीव [अपराधी आत्मा] कृष्ण को भूलना जारी रखती है, लेकिन जब वह कृष्ण के अनुकूल हो जाता है, तो इसे विद्या के संकाय द्वारा विस्थापित कर दिया जाता है। ब्रह्म-ज्ञान यानिकि दिव्य ज्ञान और इसी तरह की केवल विशेष क्रियाकलाप ज्ञान के संकाय हैं अर्थात विद्या-वृत्ति हैं। जब जीव में यह विभेदन पहले विकसित होता है, तब जीव शुभ क्रियाकलापों में संलग्न होने की कोशिश करता है, और जब विभेदन परिपक्व हो जाता है तब आध्यात्मिक ज्ञान प्रकट होता है। अविद्या जीव को उसके असली अस्तित्व से दूर भागता है अर्थात  उसके ऊपर आवरण डालता है, और विद्या उस आवरण को हटा देता है। "

 

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