हिन्दू धर्म में पशु और मनुष्य को कैसे विभाजित किया गया है?

आदित्य!
31 May 2019
प्रश्न: हिन्दू धर्म में पशु और मनुष्य को कैसे विभाजित किया गया है? हिन्दू धर्म में पशुओं को कैसे देखा जाता है? क्या उनके प्रति अलग बरताव होता है?
रोमपाद स्वामी द्वारा उत्तर: पहले मैं यह शब्द "हिन्दू धर्म" की कुछ पृष्टभूमि बताना चाहूंगा। श्रील प्रभुपाद, जो कि अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ के संस्थापकाचार्य है, समझाते है की अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और परसिया कि लोग सिंधु नदी को गलत नाम से पुकारते थे और उस हिन्दू नदी कहते थे और जो लोग इस नदी की घाटी के दूसरी तरफ रहते थे उन्हें वो हिन्दू पुकारते थे (कृपया आत्म साक्षात्कार का विज्ञान पुस्तक में इस विवरण को देखे)।
ना तो वैदिक शास्त्रों में और ना ही संस्कृत शब्दकोश में हिन्दू नाम का कोई शब्द है।
वैदिक शिक्षाओ के अनुसार सभी जीव आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समान है, वे सभी आत्मा हैं और भगवान के एक छोटे से अंश है जो कि अलग-अलग शरीर में इस संसार में स्थित है। भगवद्गीता का १४.४ और १५.७ श्लोक को देखे। इसलिए सभी जीवन का समान महत्व है और उन्हें प्रकृति के नियम के अनुसार संरक्षण प्राप्त करने अधिकार है। सरकार के प्रमुख लोग वैदिक शास्त्रों के अनुसार यह संरक्षण प्रदान करने के लिए कर्तव्यबध्य हैं। श्रील प्रभुपाद, वैदिक शास्त्रों कि शिक्षाओ के अनुसार बताते है, की भगवान की नजरो में जिस प्रकार मनुष्य एक आत्मा है जिसने एक शरीर धारण किया है उसी प्रकार पशु भी आत्मा है और एक शरीर में है। इसीलिए, श्रील प्रभुपाद, समझाते है कि जिस प्रकार से यदि हम किसी मनुष्य को मारे तो हम भगवान और प्रकृति के नियम के अनुसार नैतिक और कार्मिक रूप से जिम्मेदार होगे उसी प्रकार से यदि हम किसी पशु को मारे तो भी हम जिम्मेदार होगे। वैदिक शिक्षाओ के अनुसार मनुष्य समाज को पशुओं के जीवन जीने और संरक्षण प्राप्त करने के अधिकार को बचा कर रखना चाहिए।
भगवद्गीता के ५.१८ श्लोक में बताया हैं "विनम्र साधु पुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चांडाल को समान दृष्टी से देखते है।"
मनुष्य और पशु को क्या विभाजित करता है:
पशु काफी हद तक अपनी प्राकृतिक वृत्ति जो कि प्रकृति के गुणों से उत्पन्न होती है के द्वारा नियंत्रित होते है। चूंकि उनकी चेतना, एक आत्मा जो कि मनुष्य के शरीर में है उससे कम विकसित होती है, इसीलिए उन्हें उनके द्वारा किए गए कर्मो की जिम्मेदारी नहीं लेनी होती। वे अपने ऊपर कोई भी कर्म एकत्रित नहीं करते। पर चूंकि मनुष्य जीवन प्राकृतिक रूप से क्रमशः उन्नति करते हुए प्राप्त होता है, जिसमें की उसे समझने की विकसित क्षमता मिलती है, इसलिए वो अपने आचरण का चुनाव जानवरों कि अपेक्षा बेहतर तरीके से कर सकते है। चूंकि मनुष्य को विकसित चेतना की सुविधा प्राप्त है, इसीलिए उसे अपने किए गए कामों की जिम्मेदारी लेनी होती है।
प्रकृति की योजना के अनुसार मनुष्य जीवन का लक्ष्य भगवान के साथ अपने खोए हुए संबंध को पुनः स्थापित करना है। यह संबंध हम भगवान के उपदेश का पालन करके कर सकते है, जो कि भगवद्गीता, श्रीमद्भागवताम् आदि में दिए गए है। जानवरो में इतनी क्षमता या विकसित बुद्धि नहीं होती कि वो आत्म साक्षात्कार या भगवान को समझने की विधि को समझ सके (वो यह भी नहीं समझ पाते कि वो क्यों कष्ट भोग रहे है, में कौन हूं, जीवन का उद्देश्य क्या है, आदि)।
मनुष्य जीवनऔर पशु जीवन के मध्य ये कुछ प्रमुख अंतर है।