मृत्यु साक्षात देखने वाला अंतिम और अटल सत्य है एवं इसका स्वागत कैसे करें।

राजेश पाण्डेय, पीएच॰डी॰ !
17 Sep 2020
मृत्यु अटल सत्य है, इस भौतिक जगत में जो कोई भी पैदा हुआ है उसको एक ना एक दिन काल के ग्रास में जाना ही जाना है। किंतु ईश्वर की सबसे बड़ी माया ये है कि हम दूसरों की मृत्यु को तो देखते है लेकिन फिर सोचते है कि अभी हमारी मृत्यु नही होगी। दुर्भाग्य की बात ये है कि हम सब कभी भी अपनी मृत्यु की तैयारी नही करते हैं।
भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण कहते है मृत्यु स्वाभाविक है और जो जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है किंतु आत्मा की कभी भी मृत्यु नही होती है आत्मा हमेशा ही नवीन, नूतन और अजन्मा है। इसको न तो मारा जा सकता है न तो जलाया या गलाया जा सकता है और ना तो इसके स्वरूप को बदला जा सकता है। इसी अध्याय में आत्मा से जुड़े दो श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण है।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्षीरस्तत्र न मुह्यति ॥१३ ॥
जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है , उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता।
वांसासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्य न्यानि संयाति नवानि देहि ॥ २२ ॥
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है।
भगवद्गीता हमें यह सीख देती है क़ि कैसे हम अपने मृत्यु का स्वागत करें। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के उपदेशों से यही ज्ञान दिया क़ि कैसे हम मृत्यु के लिए अपने को तैयार करें ताकि हम जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्त होकर सदा के लिए अपने शाश्वत घर अर्थात् भगवद्धाम को जा सके और फिर कभी वापस ना आए। लेकिन भगवान की बहिरंगा शक्ति अर्थात् माया इतनी प्रबल हैं कि हमें उस तरफ़ ध्यान ही नही देने देती और इस भौतिक जगत में बारम्बार भटकाती रहती है।
मुख्यतः हम सभी लोग इस प्रकृति के ऊपर या एक दूसरे के ऊपर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए शुरू से ही घोर संघर्ष करते हुए एक दूसरे से जुझ रहे हैं। यहाँ तक कि मृत्यु के कुछ पल पहले तक यह संघर्ष जारी रहता है। और हम सब जीवनभर एक एक चीजें जोड जोड़ के बनातें/इकट्ठा करते है तथा अपने परिवार को साथ लेकर चलने का पूरा कर्तव्य निभाते हैं और इसके लिए कर्मकांड से जुड़े अपने धर्म-कर्म के कुछ कर्तव्यों को भी निभाने की कोशिश करते है। लेकिन अंत में हम अपने साथ क्या लेके जाते हैं? यह गहन चिंतन का विषय है क्यूँकि क्या मनुष्य जीवन इसीलिए मिला है? और इसका उत्तर है कि यहाँ बनायी हुई या इकट्ठा की गयी सारी चीजों में से कुछ भी नही ले के जाते!! इससे यही ज्ञान मिलता है कि हमारे साथ कुछ नही जाने वाला है अगर कुछ साथ जाएगा तो वो है हमारे द्वारा किए कर्म के फल और मनुष्य जीवन इसके लिए नही अपितु परम भगवान से जुड़ने के लिए मिला है। अच्छा या बुरा जो भी करेंगे उसको भुगतने के लिए हमें उसी अनुसार दूसरा शरीर धारण करना होगा दूसरे शब्दों में जन्म मृत्यु के चक्कर में फँसना। यदि हम भगवान से जुड़े परम कर्तव्यों को करते हैं जोकि पूर्ण और शाश्वत भी है तथा मनुष्य जीवन भी इसीलिए मिला है। ताकि हम इस जन्म तथा मृत्यु के चक्कर से छुटकारा प्राप्त कर सकें।
हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए क़ि तीव्रता से भगवद्भक्ति करके भौतिक जगत के इन दुःसह चक्र से मुक्त होकर हम अपने शाश्वत घर अर्थात् भगवद्धाम को जा सकें। इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण गीता के अध्याय १८ के ६५वें श्लोक में भगवान अर्जुनको कहते है कि ..
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ ६५ ॥
सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें वचन देता हूँ क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो।
इन श्लोकों से यही प्रतीत होता है कि हमें मनुष्य जीवन को आत्मा के अपने स्वरूप में व्यवस्थित होने में खर्च चाहिए ताकि हम बार बार के जन्म मृत्यु के चक्कर से निकल कर अपने शाश्वत शरीर को प्राप्त कर सकें और फिर कभी वापस इस भौतिक जगत में ना आयें।
यहाँ पर सरल शब्दों में कहने का तात्पर्य यह है कि हम शरीर नही है, हम आत्मा है और आत्मा का स्वरूप है “ज़ीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास” अर्थात् हम भगवान के दास है और दास का परम कर्तव्य है स्वामी की श्रद्धापूर्वक सेवा अर्थात् भगवान की प्रीतिपूर्वक सेवा करना। इस तरह की अनुभूति तभी सम्भव है जब इसके लिए हम अपनी तरफ़ से प्रामाणिक गुरु, साधु और शास्त्र के निर्देशन में तथा भक्तों के संग में अपनी तरफ़ से अथक प्रयास करें। और ये प्रयास क्या होना चाहिए “हम सबको निरंतर ही अपने को भगवान विष्णु के नाम, धाम, रूप, गुण तथा लीलाओं की महिमा का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करते में लगे रहना चाहिये।” इस कलियुग में तो “परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम” अर्थात् यह संकीर्तन आंदोलन, भगवान श्रीहरि के नाम का जप मानवता के लिए परम वरदान है। इसीलिए हम सबको सदा ही भगवान के नाम का जप करके वास्तविक ख़ुशी प्राप्त करना चाहिए।
“भगवान के नाम का जप करिए और खुश रहिए!!”
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। 😇🙏😇
हरे कृष्ण
रामानन्द दास