श्री श्रील अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद) का जीवन-चरित्र।

आदित्य!
15 May 2019
अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद), अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ, इस्कॉन (ISKCON) के संस्थापकाचार्य का जन्म, 1 सितम्बर को 1896 में कलकत्ता में एक वैष्णव परिवार में हुआ था।
कलकत्ता में सन् 1922 में श्रील प्रभुपाद पहली बार अपने आध्यात्मिक गुरु, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी से मिले तब वे अभयचरण के नाम से जाने जाते थे। भक्तिसिद्धांत सरस्वती अभय को पसंद करने लगे। और उनसे कहा कि वे वैदिक ज्ञान की शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित करें; विशेष रूप से अंग्रेजी बोलने वाले दुनिया के लोगों के लिए भगवान चैतन्य के संदेश का प्रचार करने के लिए कहा। हालाँकि, अभय ने श्रील भक्तिसिद्धांत को अपने हृदय में उनको अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप मे स्वीकार किया, और सन् 1932 में उनकी दीक्षा हुई।
सन् 1936 में श्रील प्रभुपाद ने अपने आध्यात्मिक गुरु से अनुरोध करते हुए पत्र लिखा कि यदि कोई विशेष सेवा है जिसे वह उन्हें प्रदान कर सकते हैं। श्रील प्रभुपाद को उस पत्र का उत्तर मिला जिसमें वही निर्देश थे जो उन्हें 1922 में प्राप्त हुए थे: 'विश्व के अंग्रेजी बोलने वाले लोगों के लिए कृष्ण भावनामृत का प्रचार'। इसके दो सप्ताह बाद इन अंतिम निर्देशों को छोड़कर उनके आध्यात्मिक गुरु श्रील भक्तिसिद्धांत इस दुनिया से चले गए। जो श्रील प्रभुपाद के हृदय को इतना प्रभावित कर गए। ये निर्देश श्रील प्रभुपाद के जीवन का लक्ष्य करने के लिए थे।
श्रील प्रभुपाद ने भगवद्गीता पर टिप्पणी लिखी और अपने कामों से गौड़ीय मठ की सहायता की। सन् 1944 में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब कागज दुर्लभ था और लोगों के पास खर्च करने के लिए बहुत कम पैसे थे, श्रील प्रभुपाद ने “बैक टू गॉडहेड” नामक एक पत्रिका शुरू की। सिर्फ़ प्रभुपाद जी अकेले ही रचना को लिखते, संपादित करते, देख-रेख करते, प्रूफ-रीड करते और स्वयं उसकी प्रतियां बेचते। यह पत्रिका आज भी प्रकाशित हो रही है।
इस प्रकार घर और पारिवारिक जीवन से निवृत्त होकर, अपने अध्ययन में अधिक समय देने के लिए सन् 1950 में श्रील प्रभुपाद ने वानप्रस्थ (सेवानिवृत्त) जीवन को अपनाया। सन् 1953 में उन्होंने अपने गुरुभाई से भक्तिवेदांत की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने वृंदावन की यात्रा की, जहांपर वे राधा-दामोदर मंदिर में बहुत विनम्रता से रहते थे। उन्होंने वहाँ कई साल शास्त्रों का अध्ययन और लेखनकार्य में बिताए।
सन् 1959 में उन्होंने संन्यास लेकर सन्यासी जीवन को अपनाया। यह तब की बात थी, जब वे राधा-दामोदर मंदिर में थे, उन्होंने अपनी कृति: अंग्रेजी में श्रीमद-भागवताम का अनुवाद और टिप्पणी शुरू की। उन्होंने “अन्य ग्रहों की सुगम यात्रा” भी लिखी। उन्होंने कुछ वर्षों के भीतर ही श्रीमद-भागवताम के प्रथम स्कन्द का तीन खंडों में अंग्रेजी अनुवाद और तात्पर्य लिखा। एक बार फिर से अकेले ही, उन्होंने ग्रंथो को छापने के लिए, कागज खरीदा और धन इकट्ठा किया। उन्होंने भारत के बड़े शहरों में स्वयं तथा एजेंटों के माध्यम से उन ग्रंथो को बेचा।
अब उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेशों को पूरा करने के लिए अपने को तैयार महसूस किया और कृष्ण भावनामृत का संदेश अमेरिका के लिए लेकर जाने की शुरुआत करने का फैसला किया। यह आश्वस्त किया कि अन्य देश उस अनुकूल है कि नहीं। एक समुद्री मालवाहक जहाज जिसे जलदूत कहा जाता है, पर नि:शुल्क जलमार्ग यात्रा करके अंततः वे 1965 में न्यूयॉर्क पहुंच गये। वे 69 वर्ष के थे और व्यावहारिक रूप से वे दीन थे। उनके पास श्रीमद-भागवतम की कुछ प्रतियां और कुछ सौ रुपये थे। उन्हें बहुत मुश्किलो का सामना करना पड़ा था। दो बार दिल के दौरे पड़े थे और एक बार न्यूयॉर्क पहुंचने के बाद उन्हें पता नहीं था कि किस रास्ते पर जाए। मुश्किल से छह महीने के बाद, यहाँ वहाँ प्रचार करते हुए, उनके कुछ अनुयायियों ने मैनहट्टन में एक स्टोरफ्रंट और अपार्टमेंट किराए पर लिया। यहाँपर वे नियमित रूप से प्रवचन, कीर्तन और प्रसाद वितरित करते थे। हिप्पियों सहित जीवन के सभी क्षेत्रों के लोग उनके जीवन से उस खोए हुए तत्व की तलाश में यहां खींच गये थे और कई 'स्वामीजी के' अनुसरण का हिस्सा बने।
जैसे-जैसे लोग अधिक गंभीर होते गए, श्रील प्रभुपाद के अनुयायी पार्कों में नियमित रूप से कीर्तनों का आयोजन करने लगे थे। प्रवचन और रविवार दावत के दिन तेज़ी से प्रसिद्ध हो गए। उनके युवा अनुयायियों ने अंततः श्रील प्रभुपाद से दीक्षा ली, जो सिद्धांतों का पालन करने का वादा करते थे और प्रतिदिन हरे कृष्ण महामंत्र का 16 माला जाप करते थे। उन्होंने “बैक टू गॉडहेड” पत्रिका को भी फिर से शुरू किया।
जुलाई 1966 में, श्रील प्रभुपाद ने अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ - इस्कॉन (ISKCON) की स्थापना की। उनका उद्देश्य इस संघ के द्वारा दुनिया भर में कृष्ण भावनामृत को बढ़ावा देना था। 1967 में, उन्होंने सैन फ्रांसिस्को का दौरा किया और वहां एक इस्कॉन समाज की शुरुआत की। फिर उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के संदेश को फैलाने के लिए मॉन्ट्रियल, बोस्टन, लंदन, बर्लिन और उत्तरी अमेरिका, भारत और यूरोप के अन्य शहरों में नए केंद्र खोलने के लिए दुनिया भर में अपने शिष्यों को भेजा। भारत में, शुरुआत में तीन भव्य मंदिरों की योजना बनाई गई थी: श्री वृंदावन धाम में कृष्ण बलराम मंदिर जिसमें सभी सहायक सुविधाएं थीं; बॉम्बे में एक शैक्षणिक और सांस्कृतिक केंद्र वाला मंदिर; और श्री मायापुर धाम में, वैदिक तारामंडल के साथ एक विशाल मंदिर।
श्रील प्रभुपाद ने अगले ग्यारह वर्षों के भीतर भारत में लिखित अपनी सभी ग्रंथो को तैयार किया। श्रील प्रभुपाद बहुत कम समय के लिए निद्रा लेते थे और वे सुबह का समय लिखने में बिताते थे। प्रभुपाद जी लगभग 1:30 और 4:30 बजे के बीच रोजाना (दैनिक) लिखते थे। उन्होंने बोलकर लिखाना शुरू किया, जिसे उनके शिष्यों ने टाइप और संपादित किया। श्रील प्रभुपाद मूल श्लोकों का संस्कृत या बंगाली से शब्दश: अनुवाद करते और टीका करते।
उनकी रचनाओं में भगवद्गीता यथारूप, अनेक खंडों में श्रीमद-भागवताम, अनेक खंडों में चैतन्य-चरितामृत, श्रीउपदेशामृत, कृष्ण: भगवान, चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएँ, कपिलदेव की शिक्षाएँ, महारानी कुंती की शिक्षाएँ, श्री इशोपनिषद, श्री उपदेशामृत और अन्य दर्जनों छोटी पुस्तकें शामिल हैं।
उनके लेखन का पचास से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया गया है। सन् 1972 में कृष्ण कृपामूर्ति के कार्यों को प्रकाशित करने के लिए “भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट” स्थापित किया गया था। आगे चलकर यह ट्रस्ट वैदिक धर्मग्रंथो और दर्शन के क्षेत्र में दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाशक बन गया है।
लेखन के व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद भी श्रील प्रभुपाद ने कृष्ण भावनमृत के प्रचार कार्यों को लेखन के कार्यों के बीच में आने नहीं दिया। केवल बारह वर्षों में अपनी लंबी आयु के बावजूद भी उन्होंने चौदह बार विश्व की परिक्रमा किया, उनकी यह यात्रा प्रवचनो के लिए उनको छह महाद्वीपों तक ले गई।
जब तक कि वे इस दुनिया से चले नहीं गए उनके दिन लेखन के कार्यों, अपने अनुयायियों का मार्गदर्शन और जनता को सिखाते से और संघ का विस्तार करने से जुड़े कार्यक्रमों से भरे हुए थे। इस संसार से विदा होने से पहले श्रील प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को अपने क़दमों पर चलने और दुनिया भर में कृष्ण भक्ति के प्रचार और प्रसार को जारी रखने के लिए कई निर्देश दिए थे।
उन्होंने 14 नवंबर 1977 को इस दुनिया को छोड़ दिया।
उन्होंने थोड़ा समय ही पश्चिम में बिताया। उन्होंने लगातार प्रचार किया, 108 मंदिरों की स्थापना की, दिव्य ग्रंथो के साठ से अधिक खंड लिखे, पांच हजार शिष्यों को दीक्षित किया, भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट की स्थापना की, एक वैज्ञानिक अकादमी (भक्तिवेदांत इंस्टीट्यूट) शुरू किया और इस्कॉन से संबंधित अन्य ट्रस्ट हैं।
श्रील प्रभुपाद एक असाधारण लेखक, शिक्षक और संत थे। वे अपने लेखन और उपदेशों के माध्यम से कृष्ण भावनामृत को पूरी दुनिया में फैलाने में कामयाब रहे। उनके लेखन कई भागों में शामिल हैं । और उनके यह लेखन न केवल उनके शिष्यों के लिए बल्कि आने वाले भावी पीढ़ी के शिष्यों के लिए, गुरु परम्परा के जुड़े सदस्यों के लिए और बड़े पैमाने पर आम जनता के लिए कृष्ण भावनामृत के आधार हैं।
उनके जीवन के शुरुआती दिनों से लेकर सन् 1977 में उनके अंतिम दिन तक का उनके जीवन का इतिहास उनकी अधिकृत जीवनी, सत्स्वरुप गोस्वामी द्वारा वर्णित “श्रील प्रभुपाद लीलामृत” में है।
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