श्री राम - स्तुति

आदित्य!
17 Mar 2019
सूर्यवंशोद्भवो रामो नित्यं सूर्योपसेवितः ।
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं ।
नवकंज-लोचन , कंज-मुख , कर-कंज पद कंजारुणं ॥
कदंर्प अगणित अमित छवि , नवनील-नीरद सुंदरं ।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं ॥
भजु दीनबंधु दिनेश दानव - दैत्यवंश - निकंदनं ।
रघुनंद आनंदकंद कौशलचंद्र दशरथ - नन्दनम् ।।
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं ।
आजानुभुज शर - चाप - धर , संग्राम - जित - खरदुषणं ॥
इति वदति तुलसीदास शंकर - शेष - मुनि - मन - रंजनं ।
मम हृदय - कंज निवास करु , कामादि खलदल - गंजनं ॥
मनु जाहिं राचेउ मिलहिं सो बरु सहज सुंदर साँवरो ॥
करुणा निधान सुजान सीलु सनेह जानत रावरो ॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिय हरषीं अली ।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥
सो० -
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ।
पुरुषोत्तमो धार्मनिष्ठोऽसौ रामायतस्मै नमः ॥
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी ।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ।।
लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आयुध भुज चारी ।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौ अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना वेद पुरान भनंता ।।
करुना सुखसागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रागट श्रीकंता ॥
ब्रम्हाण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति वेद कहै ।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै ॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥
माता पुनि बोली मति डोली तजह तात यह रुपा ।
कीजै शिशुलीला अति प्रियशीला यह सुख परम अनुपा ॥
सुनि वचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ।।
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