श्री श्रीमद् रोमपाद स्वामी महाराज का जीवन-चरित्र।

पार्थ!
27 Apr 2019
श्रील रोमपाद स्वामी का आविर्भाव इस जगत में २७ दिसम्बर १९४८ को हुआ था। उनका जन्म, न्यूयॉर्क में उटिका नामक स्थान पर, पांच संतानों में सबसे छोटी संतान के रूप में हुआ। यद्यपि वे परिवार के सबसे छोटे सदस्य थे फिर भी श्रील रोमपाद स्वामी को सबसे अधिक उत्तरदायी, सबसे अधिक सिद्धांत-केन्द्रित तथा सबसे अधिक उपलब्धिवान व्यक्ति के रूप में अन्य लोगों द्वारा सम्मान दिया जाता था। समय आने पर, परिवार के सबसे छोटे पुत्र ने अपनी अदभुत बुद्धिमत्ता तथा विशिष्ठता का सभी पहलुओं में प्रदर्शन किया।
एक ईसायी परिवार में पालन पोषण होने के नाते उन्होंने, उनके माता तथा पिता द्वारा दी गयी, मूल्यों की दृढ़ योग्यता प्राप्त करी। बाल्यकाल में, वे उनके जीवन के अनुभवों के प्रति प्रगाढ़ रूप से विचारशील थे। उन्होंने, उनको दी गई बाइबिल की शिक्षाओं पर, सावधानीपूर्वक मनन किया। वे प्राय: ऐसे प्रश्न पूछा करते थे, जैसे: "अपने पूरे ह्रदय, आत्मा तथा मन से भगवान को प्रेम करने का क्या अर्थ होता है? व्यक्ति व्यावहारिक रूप से कैसे 'अपने जैसा अपने पड़ोसी को प्रेम करो' के सिद्धांत पर जीता है? भगवान का साम्राज्य किस तरह का है? लोग वहाँ पहुँचने के बाद क्या करते हैं?" इन प्रश्नों के उत्तरों की खोज में, उन्होंने दिव्य ज्ञान की विभिन्न शिक्षाओं का अन्वेषण किया तथा क्रमश: भगवद्-गीता तक पहुँचे। उन्होंने भगवद्-गीता के सात या आठ अंग्रेजी अनुवादों को पढ़ा तथा ध्यान पर प्रयोग किया। लेकिन उनकी तलाश अभी भी अपूर्ण थी। १९६९ में बफ़ेलो नामक स्थान पर, स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क में विद्यार्थी के रूप में, अंतत: श्रील रोमपाद स्वामी को परम सत्य का वह मार्ग मिला जिसकी वे तलाश में थे। वहीँ पर वे सर्वप्रथम कृष्णभावनामृत के संपर्क में आये जब उन्होंने कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद् ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद को परिसर में कीर्तन करते सुना। वे पूरी तरह से भरे हुए व्याख्यान हॉल में जा घुसे जहाँ श्रील प्रभुपाद और अलेन गिन्सबर्ग मंच पर हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन कर रहे थे। यद्यपि वे उस समय यह नहीं जानते थे कि श्रील रोमपाद स्वामी का उनके शाश्वत आध्यात्मिक गुरु से अभी-अभी संपर्क हुआ था। कृष्णभावनामृत में उनकी यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी।
इस घटना के कुछ समय पश्चात्, श्रील रोमपाद स्वामी को भगवद्-दर्शन पत्रिका तथा श्रील प्रभुपाद की भगवद्-गीता यथारूप की एक-एक प्रति प्राप्त हुई, जो कि उनके द्वारा पढ़ा गया पहला ऐसा अनुवाद था जिसने दिव्य सन्देश को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया। उनको उन भक्तों का संग प्राप्त हुआ जो कि परिसर के पास निर्मित, श्रील प्रभुपाद के एक वरिष्ठ शिष्य की प्रधानता में चल रहे, प्रचार केंद्र में भाग ले रहे थे। श्रील प्रभुपाद की शुद्धता, पूर्ण दर्शन तथा वास्तव में शुद्ध करने वाले अभ्यासों पर आधारित भक्ति के व्यावहारिक जीवन के कारण, वे कृष्णभावनामृत से अधिकाधिक आकर्षित होते गए। जैसे-जैसे उन्होंने कृष्णभावनामृत के सिद्धांतों तथा अभ्यासों का पालन करना आरम्भ किया, उनको एक गहन अनुभूति हुई कि श्रील प्रभुपाद ने एक दिव्य सन्देश के वितरण के लिए बहुत अधिक व्यक्तिगत त्याग किया है, जो कि अब उनके जीवन को परिवर्तित कर रहा था। अत: श्रील रोमपाद स्वामी को श्रील प्रभुपाद के प्रति कृतज्ञता का अत्यधिक गहन भाव विकसित हुआ और उन्होंने स्वयं को अपने गुरु महाराज के मिशन में पूर्ण कृतज्ञता से समर्पित करने का निश्चय किया।
श्रील रोमपाद स्वामी इक्कीस वर्ष के थे तथा हाल ही में मेडिकल स्कूल में दाखिल हुए थे, जब वे अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ में सम्मिलित हुए। उनके मूल्यों के प्रति उच्च भाव तथा उनकी अभिव्यक्ति के लिए उनके परिवारजनों में इतना विश्वास तथा प्रशंसा थी कि जब उनने कृष्ण के प्रति पूर्ण भक्ति में अपना जीवन जीने का निर्णय किया, तो उन्होंने उनके निर्णय का सम्मान किया। वास्तव में, इस तथ्य से अंततः परिचित होने के बाद कि उनकी जीवन की नयी शैली केवल एक अस्थायी प्रसंग नहीं था, उनके परिवारजनों ने व्यक्तिगत रूप से यह तथ्य व्यक्त किया कि वे उनसे बहुत गौरवान्वित हैं; हालाँकि वे भी समान आदर्श रखते थे, उन्होंने देखा कि श्रील रोमपाद स्वामी वास्तविकता में उन आदर्शों पर जी रहे है।
जुलाई १९७१ में, श्रील रोमपाद स्वामी ने ब्रूकलिन, न्यूयॉर्क में हेनरी स्ट्रीट पर स्थित मंदिर में श्रील प्रभुपाद से प्रथम दीक्षा प्राप्त की तथा एक वर्ष पश्चात्, वर्ष १९७२ की ग्रीष्म ऋतु के दौरान श्रील रोमपाद स्वामी ने द्वितीय दीक्षा प्राप्त की। उस समय वे, १५० भक्तों वाले एक मंदिर में संकीर्तन-लीडर तथा टेम्पल-कमांडर के रूप में पूरी तरह व्यस्त थे। उसी ग्रीष्म ऋतु के दौरान, अतिरमणीय भगवान श्री श्री राधा गोविन्दजी का न्यूयॉर्क में आगमन हुआ।
उसके पश्चात्, श्रील रोमपाद स्वामी, श्री श्रीभगवान के चरण कमलों में एक श्रद्धावान सेवक बने रहे। वर्ष १९८२ की ग्रीष्म ऋतु में, श्रील रोमपाद स्वामी ने सन्यास दीक्षा प्राप्त करी। सन्यास ग्रहण करने के उपरान्त, उनने कृष्णभावनामृत का प्रचार करते हुए, अमेरिका तथा यूरोप के अनेक मंदिरों का भ्रमण किया। फिर भी उनने, श्री श्री राधा गोविन्द मंदिर, न्यूयॉर्क में हमेशा अपना आधार बनाए रखा तथा कॉलेज प्रचार, प्रसादम् वितरण एवं कृष्णभावनामृत का सन्देश दूसरों को देने के लिए स्थानीय अवसरों को आयोजित करते रहे।
मार्च १९९२ में, वे न्यूयॉर्क तथा न्यूजेर्सी के गवर्निंग बॉडी कमिश्नर नियुक्त हुए। वर्ष १९९४ में, उन्होंने मिडवेस्ट संयुक्त राज्य के लिए वही उत्तरदायित्व स्वीकार किया। उनकी प्रेरणा तथा निर्देशन में कई सन्डे स्कूल एवं सामूहिक विकास कार्यक्रम उत्पन्न तथा समृद्ध हुए। श्रील प्रभुपाद के प्रति उनकी कृतज्ञता तथा विशेष परिस्थिति जिसमे वे कृष्णभावनामृत के संपर्क में आए, के कारण श्रील रोमपाद स्वामी कॉलेज प्रचार के प्रति सदैव समर्पित रहे है।
भक्ति में केवल एक दिन की भी उनकी समस्त कार्य-कलापों को पूर्णतया वर्णित करना संभव नहीं है, लगभग पाँच दशक या अब तक के उनके सम्पूर्ण जीवन का तो कहना ही क्या। फिर भी, एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि श्रील रोमपाद स्वामी अपने जीवन में प्रत्येक क्षण उनके परमप्रिय आध्यात्मिक गुरु, श्रील प्रभुपाद, के निर्देशों तथा मिशन की सेवा करने में शत-प्रतिशत लीन है।
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