वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था में ब्रह्मचर्य जीवन का महत्व: भाग ३

आदित्य!
28 Dec 2019
भगवद गीता के 17 अध्याय के 14 श्लोक में भगवान कृष्ण ने शारीरिक तपस्या के बारे में कहा है कि परमेश्र्वर, ब्राह्मणों, गुरु, माता-पिता जैसे गुरुजनों की पूजा करना तथा पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा शारीरिक तपस्या है। इन शारीरिक तपस्याओं में से एक है ब्रह्मचर्य। श्रील प्रभुपाद जी भगवद गीता यथारूप के इसी श्लोक के तात्पर्य में कहते है कि यहाँ पर भगवान् तपस्या के भेद बताते हैं।
{ और पढ़े : वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था में ब्रह्मचर्य जीवन का महत्व: भाग १ }
मनुष्य को चाहिए कि वह ईश्र्वर या देवों, योग्य ब्राह्मणों, गुरु तथा माता-पिता जैसे गुरुजनों या वैदिक ज्ञान में पारंगत व्यक्ति को प्रणाम करे या प्रणाम करना सीखे। इन सबका समुचित आदर करना चाहिए। उसे चाहिए कि आंतरिक तथा बाह्य रूप में अपने को शुद्ध करने का अभ्यास करे और आचरण में सरल बनना सीखे। वह कोई ऐसा कार्य न करे, जो शास्त्र-सम्मत न हो। वह वैवाहिक जीवन के अतिरिक्त मैथुन में रत न हो, क्योंकि शास्त्रों में केवल विवाह में ही मैथुन की अनुमति है, अन्यथा नहीं। यह ब्रह्मचर्य कहलाता है। ये सब शारीरिक तपस्याएँ हैं।
{ और पढ़े : वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था में ब्रह्मचर्य जीवन का महत्व: भाग २ }
हरे कृष्णा
रामानन्द दास (Rajesh Kumar Pandey)
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