वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था में ब्रह्मचर्य जीवन का महत्व: भाग १

Vijay!
24 Dec 2018
हमारी पहचान ही वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था से है। जिसमें चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मतलब नौकरी करने वाले लोग) और चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास) आते है। ब्रह्मचर्य चार आश्रमों में से एक आश्रम है। इस आश्रम में मनुष्य सुरु के पाँच से पचीस साल की आयु आती है। इस आश्रम में ब्रह्मचारी अपने को वो इन्द्रियतृप्ति से दूर रहकर कठोर तपस्या और विद्या अध्ययन में लगता है ताकि वह जीवन में आने वाले कठोर संघर्षों को पार कर सके। इस अवस्था में वह अपने को सिर्फ़ अपने निर्धारित गोल यानिकि लक्ष्य प्राप्ति के लिए वह गुरु के निर्देशन में रह कर शिक्षा ग्रहण करता है और अपने को इंद्रियनिग्रह द्वारा संयमित रखता है। संयमित का मतलब अपने को भोग विलास की चीज़ों तथा स्त्रियों से दूर रखकर अपने लक्ष्य के बारे में ही सोचता है और उसी लक्ष्य के ऊपर ध्यान केंद्रित करता है।
अब सवाल उठेगा की ब्रह्मचारी क्यूँ भोग विलास से दूर रहता है और उसे इसकी क्या आवश्यकता है? तो उसका उत्तर है जो जितनी कठोरता से अपने इंद्रियो का दमन करके अपने वीर्य को संचित करता है वो उतनी ही तेज़ी से अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए आगे बढ़ता है। क्यूँकि वीर्य संचय द्वारा ध्यान केंद्रित करने की शक्ति में वृद्धि होती है। इसीलिए ब्रह्मचर्य जीवन हमारी सफलता को निर्धारित करने के लिए सर्वश्रेष्ठ है।
अध्यात्मिक जीवन की शुरुआत कैसे होती है ?
इस उम्र में जो लोग अपने को भोग और विलास से दूर होकर कठोरता से ब्रह्मचर्य जीवन का पालन करते हैं तो वे समाज में एक कामयाब इंसान बनकर उभरते है और समाज को एक सही रास्ता दिखाते है।
ब्रह्मचर्य जीवन जीने की ऐसी शक्ति होती है की स्वामी विवेकानंद जी ने इसका बहुत ही कठोरता से पालन किया था। जिसके कारण उनकी याददाश्त तथा बुद्धि इतनी तेज़ थी कि वो पन्ना पलटने की तेज़ी से ही पुस्तकों को पढ़ लेते थे और साथ साथ याद भी कर लेते थे। महात्मा गांधी जी ने भी ब्रह्मचर्य जीवन के ऊपर बहुत ज़ोर दिया था। हमारे सभी महात्मा, साधुगण एवम् सभी वेदिक शास्त्र जिसमें भागवद गीता भी सम्मिलित है ब्रह्मचर्य जीवन के ऊपर ज़ोर दिया है। ब्रह्मचर्य का दृढ़ता से पालन करने से इसके पालन कर्ता का अपने आप ही नैतिक, समाजिक, बौद्धिक, मानसिक और शारीरिक विकास होता है तथा वह सीधे ही
वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था में ब्रह्मचर्य जीवन का महत्व: भाग २
ब्रह्मचर्य के महत्व के ऊपर श्रील प्रभुपाद जी गीता यथारूप के आठवें अध्याय के ११ श्लोक के तात्पर्य में कहते है कि ब्रह्मचर्य का कठोरता से पालन किए बिना आध्यात्मिक उन्नति कर पाना बहुत ही कठिन है। भगवान कृष्ण ने गीता में ध्यान योग में भी अष्टांग योग में भी ब्रह्मचर्य जीवन के बारे में बताया है। गौतम बुद्ध ने भी ब्रह्मचर्य जीवन के बारे में बताया है उसके बिना निर्वाण सम्भव नहीं है यही बात शंकराचार्य ने और समस्त वैष्णव महाजनो ने भी इस बात की पुष्टि की है।
धर्म सिद्धांत के अनुसार कोई अगर जन्म से लेकर मृत्यु तक सिर्फ़ एक नियम वह है ब्रह्मचर्य का पालन करता है तो वह व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी है और वह जन्म मृत्यु के चक्कर से छुटकारा प्राप्त करके सीधा भगवद धाम को जाता है।
वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था में ब्रह्मचर्य जीवन का महत्व: भाग ३
हरे कृष्णा
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