वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था में ब्रह्मचर्य जीवन का महत्व: भाग २

Vijay!
27 Dec 2018
हमारे वेदिक शास्त्र भगवद गीता के १६ अध्याय के १-३ श्लोक में भगवान कृष्ण ने २६ दैवी गुणों कि बारे में चर्चा किया है जिसने से एक है वेदाध्ययन। श्रील प्रभुपाद जी भगवद गीता यथारूप के इसी श्लोक के तात्पर्य में कहते है कि स्वाध्याय या वेदाध्ययन ब्रह्मचर्य आश्रम या विद्यार्थी जीवन के लिए है। ब्रह्मचारियों का स्त्रियों से किसी प्रकार सम्बन्ध नहीं होना चाहिए। उन्हें ब्रह्मचर्यजीवन बिताना चाहिए और आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन हेतु, अपना मन वेदों के अध्ययन में लगाना चाहिए। यही स्वाध्याय है।
वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था में ब्रह्मचर्य जीवन का महत्व: भाग १
भगवद गीता के 17 अध्याय के 14 श्लोक में भगवान कृष्ण ने शारीरिक तपस्या के बारे में कहा है कि परमेश्र्वर, ब्राह्मणों, गुरु, माता-पिता जैसे गुरुजनों की पूजा करना तथा पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा शारीरिक तपस्या है। इन शारीरिक तपस्याओं में से एक है ब्रह्मचर्य। श्रील प्रभुपाद जी भगवद गीता यथारूप के इसी श्लोक के तात्पर्य में कहते है कि यहाँ पर भगवान् तपस्या के भेद बताते हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह ईश्र्वर या देवों, योग्य ब्राह्मणों, गुरु तथा माता-पिता जैसे गुरुजनों या वैदिक ज्ञान में पारंगत व्यक्ति को प्रणाम करे या प्रणाम करना सीखे। इन सबका समुचित आदर करना चाहिए। उसे चाहिए कि आंतरिक तथा बाह्य रूप में अपने को शुद्ध करने का अभ्यास करे और आचरण में सरल बनना सीखे। वह कोई ऐसा कार्य न करे, जो शास्त्र-सम्मत न हो। वह वैवाहिक जीवन के अतिरिक्त मैथुन में रत न हो, क्योंकि शास्त्रों में केवल विवाह में ही मैथुन की अनुमति है, अन्यथा नहीं। यह ब्रह्मचर्य कहलाता है। ये सब शारीरिक तपस्याएँ हैं।
वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था में ब्रह्मचर्य जीवन का महत्व: भाग ३
हरे कृष्णा
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