अध्याय दो
श्लोक
श्लोक
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥१५॥
यम् - जिस; हि - निश्चित रूप से; न - कभी नहीं; व्यश्यन्ति - विचलित नहीं करते; एते - ये सब; पुरुषम् - मनुष्य को; पुरुष-ऋषभ - हे पुरुष-श्रेष्ठ; सम - अपरिवर्तनीय; दुःख - दुख में; सुखम् - तथा सुख में; धीरम् - धीर पुरुष; सः - वह; अमृतत्वाय - मुक्ति के लिए; कल्पते - योग्य है।
भावार्थ :हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जन)! जो पुरुष सुख तथा दख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रहता है , वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य हैं।