अध्याय दो
श्लोक
श्लोक
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥४०॥
न - नहीं; इह - इस योग में; अभिक्रम - प्रयत्न करने में; नाश: - हानि; अस्ति - है; प्रत्यवाय: - हास; न - कभी नहीं; विद्यते - है; सु-अल्पम् - थोडा; अपि - यर्धपि; धर्मस्य - धर्म का; त्रायते - मुक्त करना है; महत: - महान; भयात् - भय से।
भावार्थ :इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है।