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अध्याय तीन
श्लोक

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्य कार्यं न विद्यते ॥१७॥ 

शब्दार्थ :

यः - जो; तु - लेकिन; आत्म-रतिः - आत्मा में ही आनन्द लेते हुए; एव - निश्र्चय ही; स्यात् - रहता है; आत्म-तृप्तः - स्वयंप्रकाशित; च - तथा; मानव: - मनुष्य; आत्मनि - अपने में; एव - केवल; च - तथा; सन्तुष्टः - पूर्णतया सन्तुष्ट; तस्य - उसका; कार्यम् - कर्तव्य; न - नहीं; विद्यते - रहता है ।

भावार्थ :

किन्तु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनन्द लेता है तथा जिसका जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है और जो अपने में ही से पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्तव्य) नहीं होता ।

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