अध्याय तीन
श्लोक
श्लोक
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियान्विमढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥६॥
कर्म-इन्द्रियाणि - पाँचो कर्मेन्द्रियों को; संयम्य - वश में करके; य: - जो; आस्ते - रहता है; मनसा - मन से; स्मरन् - सोचता हुआ; इन्द्रिय-अर्थान् – दम्भी; विमूढ - मूर्ख; आत्मा - जीव; मिथ्या-आचारः - दम्भी; सः - वह; उच्यते - कहलाता है।
भावार्थ :जो कर्मेन्द्रियों को वश में तो करता है, किन्तु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिन्तन करता रहता है, वह निश्र्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है।