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अध्याय चार
श्लोक

चातुवयं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥१३॥

शब्दार्थ :

चातुः-वर्ण्यम् - मानव समाज के चार विभाग; मया - मेरे द्वारा; सृष्टम् - उत्पन्न किये हुए; गुण - गुण; कर्म - तथा कर्म का; विभागशः - विभाजन के अनुसार; तस्य - उसका; कर्तारम् - जनक; अपि - यद्यपि; माम् - मुझको; विद्धि - जानो ; अकर्तारम् - न करने के रूप में; अव्ययम् - अपरिवर्तनीय को ।

भावार्थ :

प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये । यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्त्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जाना लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ ।

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