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अध्याय चार
श्लोक

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥३६॥

शब्दार्थ :

अपि - भी; चेत् - यदि; असि - तुम हो; पापेभ्यः - पापियों से; सर्वेभ्य: - समस्त; पाप-कृत-तम: - सर्वाधिक पापी; सर्वम् - ऐसे समस्त पापकर्म; ज्ञान-प्लवेन - दिव्यज्ञान की नाव द्वारा ; एव - निश्र्चय ही; वृजिनम् - दुखों के सागर को; सन्तरिष्यसि - पूर्णतया पार कर जाओगे ।

भावार्थ :

यदि तुम्हें समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो भी तुम दिव्यज्ञान रूपी नाव में स्थित होकर दुख-सागर को पार करने में समर्थ होगे ।

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