अध्याय चार
श्लोक
श्लोक
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥
यदा यदा - जब भी और जहाँ भी; हि - निश्र्चय ही; धर्मस्य - धर्म की; ग्लानि: - हानि, पतन; भवति - होती है; भारत - हे भारतवंशी; अभ्युत्थानम् - प्रधानता; अधर्मस्य - अधर्म की; तदा - उस समय; आत्मानम् - अपने को; सृजामि - प्रकट करता हूँ; अहम् - मैं ।
भावार्थ :हे भरतवंशी ! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ ।