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अध्याय पाँच
श्लोक

योगयुक्तो विश‍ुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय: ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ ७ ॥

शब्दार्थ :

योग-युक्त:—भक्ति में लगे हुए; विशुद्ध-आत्मा—शुद्ध आत्मा; विजित-आत्मा— आत्म-संयमी; जित-इन्द्रिय:—इन्द्रियों को जीतने वाला; सर्व-भूत—समस्त जीवों के प्रति; आत्म-भूत-आत्मा—दयालु; कुर्वन् अपि—कर्म में लगे रहकर भी; न—कभी नहीं; लिप्यते—बँधता है ।.

भावार्थ :

जो भक्तिभाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं। ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बँधता।

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